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Showing posts from 2015

तमाम रंगों के बीच भी कुछ सफ़ेद रह जाता है

आँखों की नमी पे कुछ नाम  लबों पे दो चार लफ्ज़  और कुछ पते गुमनाम हज़ारों कहानियोँ के बीच  कोई एक किस्सा अनकहा रह जाता है  कितनी भी गिरहें खोल दो  कुछ तब भी बंधा रह जाता है  कभी कश्मकश है कभी रंजिशें  कभी आरज़ू है कभी बंदिशें  और चाहतें हैं और साजिशें तमाम रंगों के बीच भी कुछ सफ़ेद रह जाता है  कितनी भी गिरहें खोल दो कुछ तब भी बंधा रह जाता है  कुछ यादों के ज़ख्म हैं कुछ वादों पर यकीन है कुछ छूटने का ग़म है  तो कुछ पाने का सुकून है  और कुछ पहेलियाँ अजीब सी , हज़ारों जज़्बातों के बीच भी  कुछ अनसुना रह जाता है  कितनी भी गिरहें खोल दो ज़िन्दगी की  कुछ तब भी बंधा रह जाता है निधि  दिसंबर २०, २०१५ 

It was you who left me and I am fine with it !

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Dear Ex,  I am still not able to figure out what went wrong between us.  We loved each other and wanted to be together but we are not ! Is it life, destiny, you or me ? The last time we spoke about us was the best ever conversation we ever had.  You told you will admit among all that you are the culprit so that nobody would blame me for leaving you. You told me to find a partner for myself  before its too late. You told me to forget the good time spent together and focus on the relationship which had turned sour. You told that we were not made for each other and so we should not be together. I am writing this letter to Thank you !  To tell you that I don't have any problem in telling the world that it was your decision to leave me. Thanks for making me understand that we were not made for each other because that only made me realize that I am not made for anybody.  I am here to live my own life ! Thanks for making me understand that y

तुम्हारे लिए - 2

1. उनका शौक़ था कि हम उन पर लिखें  और हमारी ख्वाहिश थी कि वो हमें पढ़ेँ   इश्क़ की स्याही ज़िन्दगी के पन्नों पे कुछ यूँ बिखरी , कि वो अपने वज़ूद से हमें लिखते रहे   हम अपनी मोहब्बत से उन्हें पढ़ते रहे 2. कहा हमने उनसे की मोहब्बत का हुनर नहीं हम में , वो ज़िन्दगी बन गए और कहा बस साँसे लेती रहिये 3. ये ग़म भी शौकिया है और ये नफरत भी , खुद खुदा से दुआ मांगी थी मोहब्बत की   ये मत समझना की दिल में कोई दर्द लिए बैठे हैं, लिखना आदत है हमारी और तलब है शायरी की Nidhi 

नीरव : तुम हो नहीं

सच यही की तुम मेरे सच नहीं और मेरी लकीरों में हो नहीं , दुआओं में हो मुमकिन कहीं, लेकिन तकदीरों में हो नहीं  हो मेरे जज़्बात में लेकिन हो बातों में नहीं, आँखों में रख कर क्या करुँ जब तस्वीरों में हो नहीं  जो होता ग़वारा तो तुम्हें भी , हम ख़ुदा से माँग लेते , क्या करें लेकिन, हम उन जैसे  फकीरों में नहीं  चाहते जो हम अगर , तो  सुबह को यहीं पर रोक लेते , लेकिन रात तो अब महबूब है और डर अंधेरों से नहीं कुछ तुम्हारी बेवफाई,  कुछ हमारी अगलगाई  ढाई अक्षर इश्क़ के ,पढ़ कर भी हम कबीरों में नहीं  इश्क़ की और ज़िन्दगी की जंग में सब खैर है , जो है मुनासिब ज़िन्दगी है ,जो इश्क़ है वो गैर है   निधि  अक्टूबर २६, २०१५ 

नीरव

इश्क़ खुद से भी निभाया और  उस से भी  आँखों से उसकी तस्वीर मिटा दी  लेकिन आँसू हमेशा उसके नाम के थे  यूँ तो मोहब्बत का हक़ नहीं दिया  लेकिन नफ़रतें उसी के नाम से आबाद कीं  कभी कहा था उसके महबूब ने, नाकाफ़ी है इश्क़ ज़िन्दगी के लिए उसने बस इतनी ही दुआ दी  देखना हर रोज़ इश्क़ से मुलाकात होगी  और हर रोज़ ज़िन्दगी बर्बाद होगी  और इस तरह , इश्क़ खुद से भी निभाया और उस से भी  निधि  अक्टूबर ६,२०१५ 

कुछ फैसलों के ज़ख्म को !

कितनी ही शिददत से हो लिखा, कैसी भी स्याही से रंगा  जो पढ़नी हो किताब ज़िन्दगी की , कुछ पन्ने हटाने पड़ेंगे क्यों रौशनी से परहेज़ रखना,  क्यों अंधेरों से दिल लगाना जो सच छुपाने हो दूसरों से, कुछ राज़ खुद के मिटाने पड़ेंगे माज़ी पे क्या आँसू बहाना, जीते हुए क्यों हार जाना, जो फ़िक्र मुस्तक़बिल की है ,कुछ जिक्र भूलने पड़ेंगे क्यों फासलों को कोसना, क्यों क़दमों को है रोकना  जो इश्क़ मंज़िलों से है  ,कुछ रास्ते ढूंढने पड़ेंगे कितने भी रंगो से हो सजा, कैसे भी जज़्बातों से भरा , जो देखनी है हक़ीक़त ज़िन्दगी की, कुछ सपने बदलने पड़ेंगे क्यों ख़ुदा से रंज रखना , क्यों खुदी से जंग करना , जो फ़क्र खुद पे हो तो अब, कुछ फर्क समझने पड़ेंगे कुछ फैसलों के ज़ख्म को, बेहतर है अब भरने ही दो , जो साथ हम हैं तो ख़ुदा को, कुछ करिश्मे करने पड़ेंगे     निधि सितम्बर २६,२०१५

तुम्हारे लिए

ये तुम्हें क्या हुआ ये मुझे क्या हुआ    दूरियाँ बस दरमियाँ कैसे संभाले खुद को पिया,  दूरियाँ बस दरमियाँ  जो वो खास था तो कहाँ गया  जो वो पास था क्यों चला गया   कैसे मनाएँ खुद को पिया, दूरियाँ बस दरमियाँ जो वो प्यार था तो कहाँ गया  जो वो यार था क्यों चला गया  कैसे संभाले अब ये जिया ,  दूरियाँ बस दरमियाँ दूरियाँ अब दरमियाँ निधि  २३ अगस्त २०१५

हमनवाँ खुद को बना चलता रहे !

हमनवाँ  खुद को बना चलता रहे  है यही बेहतर इन्सां के लिए  कसमों को इरादों की जरुरत है कहाँ  हो गर जरूरी तो बस बात बदलता रहे  पावँ जो थक भी गए तो भी चलता रहे  है यही बेहतर इन्सां के लिए  ज़ख्म को अब मरहम की जरुरत है कहाँ  ज़िस्म को ख़ाक समझ बस चोट बदलता रहे  हो सफर मुश्किल तो भी चलता रहे  है यही बेहतर इन्सां के लिए  है नहीं मुमकिन इस जहाँ में खुदा होना  हो जो गर मुमकिन तो खुद को बदलता रहे  वक़्त के साथ साथ चलता रहे  है यही बेहतर जिंदगी के लिए इंसान को अब रूह की जरूरत है कहाँ  जश्न दर जश्न बस लिबास बदलता रहे   निधि  अगस्त १६    

बस यूँ ही

१.इश्क़ की रस्में  अजीब , तुम्हारी होना भी है और तुम्हें बताना भी नहीं  २.ज़िन्दगी और इश्क़ की रस्में दोनों निभाते रहे  जीते रहे ,जलते रहे और दिल को समझाते रहे ३. तुम बेवफा कैसे हुए ? खुदगर्ज़ तो हम हैं की तुम्हारे बिना भी ज़िंदा रह लिए  ४. दुनिया कहती रही की तुम बेवफा हो जो हमारे आंसू पोछने नहीं आये ,    लेकिन हमें आज भी यकीन है की तुम्हें हमारे आंसू पसंद नहीं  ५ .इश्क़ भी मुमकिन है  दोबारा और ज़िन्दगी भी      रात के बाद सुबह आती तो है हर रोज              निधि 

मेरी अभिव्यक्ति

नारी का प्रेम प्रिय,नहीं होता कभी  इतना सरल अभियक्ति नहीं करती कभी, विरह की वेदना विरल जब प्रेम में आतुर ह्रदय , भूलता है जटिलता देह की पाषाण कर देती है ह्रदय को कोई विवशता नेह की मेरी आँखों से जो कभी तुम काश खुद को देख पाते मेरे ह्रदय का हर रहस्य ,मेरे ह्रदय ,तब जान पाते मैं नहीं तुमसे अलग, ये बात भी तुम जान जाते न पूछते मुझसे कभी,बस जान कर हीं मान जाते ह्रदय अब समझता है तुम्हें, और तुम्हारे प्रश्न को तुम हो परखना चाहते ,मुझे और मेरे प्रयत्न को मेरा समर्पण हीं देगा तुम्हें, मेरे निश्चय व प्रेम का प्रमाण स्वीकारोक्ति के उस एक क्षण की करते प्रतीक्षा मेरे भी प्राण शील और संकोच छोड़ अब , मैं मुक्त होना चाहती रोक लो मुझको यहीं की अब तुमसे बंधना चाहती बनना भी तुमसे चाहती , तुमसे हीं टूटना चाहती तुमसे हीं हार कर सदा , तुमसे हीं सधना चाहती नारी का प्रेम प्रिय,नहीं होता कभी  इतना सरल अभियक्ति नहीं करती कभी, विरह की वेदना विरल नारी का प्रेम प्रिय ,ऐसा हीं होता है जटिल और जटिल हो कर हीं ये जीवन को करता है सरल मेरी अभिव्यक्ति ही

Love and Relationship

Fear and hope are two things which are constant . Either we live in  constant hope of not being scared of anything or we are too scared to be hopeful. With time thoughts change, ideology changes, the way we judge people, our reaction  to different situations, our  priorities, everything changes but in the midst of all , two things remain unchanged. Our nature to fear and to hope. These days I am reading the philosophy of Sadguru Jaggi Vasudev and that has helped me a lot to understand things in a different way. To love, fear and hope are not required at all, neither do they play any role but in a relationship they are the key elements.  Relationship is managing your love which involves the role of the other person whom we love and that makes it complicated and difficult but love is free of all the nuisances and the responsibilities. If we are in love, we just need to be ourselves. It does not require anything else but in a relationship we have to be to a certain extent w

अनकही

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आज तन्हाई में जब याद तुम्हारी आई  महक उठी यादो की कलियाँ, धड़कनें घबराईं  चाँद रुक गया ,रात जग गयी ,चांदनी मुस्काई  वो तेरा खामोश रहकर मुझसे सब कुछ देना आँखों ही आँखों में सबसे ,छुप के गपशप कर लेना  यादों के आँगन से फिर से  धूप सुनहरी छाई  आज तन्हाई में जब याद तुम्हारी आई  चलते चलते रास्तों पर हम मिले कुछ इस कदर  अनजानी राहों में चल के ,कोई पाये अपना घर  तेरी खुशबू  सांस बनकर ,धड़कनो में समाई आज तन्हाई में जब याद तुम्हारी आई  ज़िन्दगी का ये सफर ,है बड़ा मुश्किल सफर  हर ख़ुशी में हर ग़म में ,तुझको ढूंढें ये नज़र  आये मुझको याद तुम और आँख ये भर  आई  आज तन्हाई में जब याद तुम्हारी आई   नयन  जून,२१ ,२०१५  Image courtesy : Google 

अनकही

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ये कैसी जिद दे गए हो तुम की मैं मानती ही नहीं मैं ही हूँ या कोई और, जैसे खुद को जानती ही नहीं लोग पूछते हैं मुझसे ,मैं खुश हूँ की नहीं मैं सोचती हूँ , मैं हूँ तो सही  लोग ढूंढते हैं मुझमें , तुम हो की नहीं मैं खुश हूँ मुझमे तुम हो तो सही  तुम्हें खोना खुद को खोने जैसा है और तुम्हे पाना सपने जैसा है तुम्हे सोचना तुम्हारी होने जैसा है और तुम्हारी होना तुम्हे पाने जैसा है ऐसा नहीं की मेरे सपने बदल गए मेरा सच बदल गया या अपने बदल गए ऐसा नहीं की मन बदल गया छोटी सी बात है बस जीवन बदल गया ऐसा कम हीं बार होता है मन को कोई स्वीकार होता है कुछ लोग नियति कहते हैं बस ऐसे ही प्यार होता है दोनों हाथ प्रार्थना में जुड़ जाते हैं पाँव मंदिर की और मुड़ जाते हैं जिसे देखा नहीं,वो हर जगह होता है समझ से परे ,वह वो वजह होता है अगर मन को ये अधिकार होता और  नियति को स्वीकार होता तुम ही जिद होते और तुम्ही जिंदगी भी तुम ही दुआ होते और तुम्ही बंदगी भी तुमसे ही खुशियां होती ,तुमसे ही चाहत भी तुमसे ही आंसू होते, तुम से ही शिकायत भी

नीरव : तुम्हे देने को बहुत कुछ रखा है

तुम्हे देने को बहुत कुछ रखा है  वो तुम्हारे कुछ खत ,कुछ सूखे फूल और वो एक रात ना मैं बदली ना तुम बदले ,बदले तो बस कुछ वायदे हैं  मर्यादा और शिष्टता तो संसार के कुछ कायदे  हैं  प्रेम तो अब भी वहीं है ,वैसे ही आतुर व चंचल  है नहीं बस वो ह्रदय ,विश्वास से भरा व निश्छल   देह की व्याकुलता क्षणिक, नियति भी प्रकृति को विस्तार देना     ह्रदय नहीं नियमों में बंधा  ,नियति ,प्रकृति बस प्यार देना  प्रेम में बंध कर कभी भी, कोई नहीं फिर मुक्त होता  बस बदल जाते हैं बंधन, कोई कवि  कोई अव्यक्त होता   प्रेम में बस प्रेम ही होता है जीर्ण या रहता नवीन  प्रेम का तो  लक्ष्य होता  प्रेम में होना विलीन  तुमसे नहीं कोई शिकायत ,तुम बस एक बिसरी याद हो  हो नहीं तुम अब कहीं भी,हो भी तो मेरे बाद हो  खाली हाथ , निर्बल ह्रदय और अहम की गाँठ खोले  जीवन से थक, दूर प्रेम से ,रह जाओगे जब अकेले  आना तुम उसी जगह ,जहाँ प्रेम का  वचन दिया था  तुम्हे देने को बहुत कुछ रखा है तुम्हारा प्रेम, तुम्हारी  विवशता और वो एक रात  वो तुम्हारी मुक्ति ,तुम्हारा जीव

अश्रुओं की भी अपनी कथा

वेदना के भार से  जब ह्रदय होता विकल  सत्य को स्वीकार करने , के प्रयत्न होते विफल  तब, नयनों  तक आकर  कुछ देर पलकों पर  ठहर  वापस चले जाते पुनः  असहाय से अपने नगर दुःख होता है चरम पर, और धैर्य की होती परीक्षा  ईश्वर और इंसान की, होती नहीं जब एक इच्छा  मन अधीर हो चाहता , संताप से जब मुक्त होना  संशय विकल हो चाहता  ,  सत्य से संयुक्त होना  तब , नयनों  तक आकर  कुछ देर पलकों पर  ठहर  वापस चले जाते पुनः  असहाय से अपने नगर अश्रुओं की भी अपनी कथा,  ना  कह सकें अपनी व्यथा  ना मुक्त हों , ना बंध सकें, जीवन की कैसी ये प्रथा  जो व्यक्त हो जाएं कहीं, तो  जग कहे दुर्बल है मन  और जो अव्यक्त हों, निष्ठुर कहे अपना ही मन  शब्द जब निःशब्द  होकर, मौन का करते वरण वाणी जब अवरुद्ध होकर,  करती ह्रदय का अनुसरण  तब , नयनों  तक आकर  कुछ देर पलकों पर  ठहर  वापस चले जाते पुनः  असहाय से अपने नगर निधि भारती  १० जून ,२०१५ 

A girl's pen : ईश्वर से : भाग II

A girl's pen : ईश्वर से : भाग II : क्या तुम नहीं रोते कभी और अगर रोते हो तो क्या रो रहे हो तुम अभी ? क्या धरती का आर्तनाद  आकाश तक पहुंचा  कभी और अगर पहु...

ईश्वर से : भाग II

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क्या तुम नहीं रोते कभी और अगर रोते हो तो क्या रो रहे हो तुम अभी ? क्या धरती का आर्तनाद  आकाश तक पहुंचा  कभी और अगर पहुँचा  है तो क्या पहुँच  रहा है  अभी ? मैं नहीं मांगूगी कुछ क्षीण या समृद्ध करो  बस छीन कर मुझसे मेरा न देवत्व अपना सिद्ध करो  मैं नहीं कहती कभी की मैं तुम्हारी भक्त हूँ अभिशाप और विवशता यही मनुष्य हूँ , अशक्त हूँ कर्म और धर्म तो बस तुम्हारे रचे कुछ खेल  हैं  कर्त्तव्य और प्रारब्ध  का  होता कहाँ कोई मेल है  क्या  देख तुम सकते नहीं  और अगर दृष्टि है तो क्या देख पाते हो अभी ? संघर्ष की शक्ति नहीं दुःख की अभिव्यक्ति नहीं  भय छूटने और टूटने का अब सर्वत्र व्याप्त है  ज्ञान मोह के वश हुआ, साहस  नहीं पर्याप्त है  जो देव हो तो ये कहो  क्या दुखी  होते नहीं ? जो देव हो तो हो द्रवित  क्या रो रहे हो तुम अभी ? निधि भारती  जून ९ ,२०१५ 

प्रेम का ही है निमंत्रण प्रेम ही पथ रोकता

प्रेम का ही है निमंत्रण  प्रेम ही  पथ रोकता कैसे और किसको बताऊँ  मन ये क्या क्या सोचता शत्रु तो तुम हो नहीं क्यों लूटते मन का नगर जो स्वप्न हो फिर ये बताओ क्यों जगाते हर प्रहर  ना तुम्हे मैं टोक पाऊँ ना स्वयं को रोक पाऊँ मुश्किलें पथ पर प्रबल हैं पग चाहे लेकिन चलती जाऊं  प्रेम में अब डूब कर ये प्रेम से  मुँह मोड़ता प्रेम का ही है निमंत्रण  प्रेम ही  पथ रोकता कैसे और किसको बताऊँ  मन ये क्या क्या सोचता निधि  जून ८,२०१५ 

शब्द

ह्रदय की कैसी ये विवशता , न सत्य को स्वीकार करता  ना ही है प्रतिकार करता  रुक जाऊं या पथ बदल लूँ बस यही विचार करता  आनंद की उन्मुक्तता  में  और विषाद की एकरूपता  में  अपनी नियति को समझने  का प्रयत्न बेकार करता  रुक जाऊं या पथ बदल लूँ बस यही विचार करता  आसक्ति  का कर्त्तव्य भी   और मुक्ति का दायित्व भी  बस देह को जीवन नदी के  इस पार से उस पार करता  रुक जाऊं या पथ बदल लूँ बस यही विचार करता  संयोग की अतिरेकता में  और वियोग की नीरवता में  दे बलिदान निज का सदैव  प्रेम  को साकार करता  रुक जाऊं या पथ बदल लूँ बस यही विचार करता  ह्रदय की कैसी ये विवशता , न सत्य को स्वीकार करता  ना ही है प्रतिकार करता  निधि भारती  ७ जून ,२०१५ 

ईश्वर से

शब्द नहीं मिल रहे कि तुम्हें कुछ लिख सकूँ कंठ भी अवरुद्ध है कि तुम्हें कुछ कह सकूँ    जानती हूँ व्यर्थ है पूछना तुम कौन हो  हो जहाँ भी जिस जगह,क्यों न जाने मौन हो  धर्म और कर्म की परिभाषाएं तुमने गढ़ी, हमने बस नियति की सीढियाँ ही हैं चढ़ी  मैं तो सहज हूँ अभी भी, जैसे पिछली बार थी  बदलेगी तो नियति हीं ,जैसे बदली पिछली हार थी  जानती हूँ  फिर तुम्हारी कोई नई ये परीक्षा है  इस परीक्षा के परिणाम की हीं मुझे भी प्रतीक्षा है  जानते हो तुम मुझे, ये कहाँ मैं जानती हूँ सिर्फ ये कहना है तुम्हें कि तुमको ही बस मानती हूँ  अब यहाँ से आस्था,शक्ति और विश्वास दो  धरती कि विवशता को आशा का आकाश दो  जानती हूँ पढ़ लोगे तुम ,जो नहीं मैं लिख सकी  मान लोगे वो बात भी ,जो नहीं मैं कह सकी  निधि भारती  ३ जून, २०१५