ह्रदय की कैसी ये विवशता ,

ह्रदय की कैसी ये विवशता ,
न सत्य को स्वीकार करता
ना ही है प्रतिकार करता
रुक जाऊं या पथ बदल लूँ
बस यही विचार करता

द्वंद्व प्रेम और कर्त्तव्य में, है ह्रदय बस मौन दर्शक
कर्तव्य का यह मित्र है और प्रेम का जो पथ प्रदर्शक
अपनी प्रकृति से हो विवश
कभी त्याग कभी व्यापार करता


ह्रदय की कैसी ये विवशता ,
न सत्य को स्वीकार करता
ना ही है प्रतिकार करता
रुक जाऊं या पथ बदल लूँ
बस यही विचार करता

द्वेष का है दंश सहता  दुष्टता का दोष भी
वेदना का भार ढोता  शिष्टता का रोष भी
कभी रह कर सरल कभी बन कर प्रबल
कभी स्वागत कभी प्रहार करता

ह्रदय की कैसी ये विवशता ,
न सत्य को स्वीकार करता
ना ही है प्रतिकार करता
रुक जाऊं या पथ बदल लूँ
बस यही विचार करता


तठस्थता में गौण हो कर मनुष्यता में प्रकट हो कर ,
विशिष्टता में मौन हो कर प्रबुद्धता में प्रखर हो कर
नित नए टुकड़ों में बँटकर,
 जीवन को एकाकार करता

ह्रदय की कैसी ये विवशता ,
न सत्य को स्वीकार करता
ना ही है प्रतिकार करता
रुक जाऊं या पथ बदल लूँ
बस यही विचार करता

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