तमाम रंगों के बीच भी कुछ सफ़ेद रह जाता है




आँखों की नमी पे कुछ नाम 
लबों पे दो चार लफ्ज़ 
और कुछ पते गुमनाम

हज़ारों कहानियोँ के बीच 
कोई एक किस्सा अनकहा रह जाता है 

कितनी भी गिरहें खोल दो 
कुछ तब भी बंधा रह जाता है 



कभी कश्मकश है कभी रंजिशें 
कभी आरज़ू है कभी बंदिशें 
और चाहतें हैं और साजिशें

तमाम रंगों के बीच भी
कुछ सफ़ेद रह जाता है 

कितनी भी गिरहें खोल दो
कुछ तब भी बंधा रह जाता है 



कुछ यादों के ज़ख्म हैं कुछ वादों पर यकीन है
कुछ छूटने का ग़म है  तो कुछ पाने का सुकून है 
और कुछ पहेलियाँ अजीब सी ,

हज़ारों जज़्बातों के बीच भी 
कुछ अनसुना रह जाता है 

कितनी भी गिरहें खोल दो ज़िन्दगी की 
कुछ तब भी बंधा रह जाता है



निधि 
दिसंबर २०, २०१५ 








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