नीरव : तुम हो नहीं







सच यही की तुम मेरे सच नहीं और मेरी लकीरों में हो नहीं ,
दुआओं में हो मुमकिन कहीं, लेकिन तकदीरों में हो नहीं 

हो मेरे जज़्बात में लेकिन हो बातों में नहीं,
आँखों में रख कर क्या करुँ जब तस्वीरों में हो नहीं 

जो होता ग़वारा तो तुम्हें भी , हम ख़ुदा से माँग लेते ,
क्या करें लेकिन, हम उन जैसे  फकीरों में नहीं 

चाहते जो हम अगर , तो  सुबह को यहीं पर रोक लेते ,
लेकिन रात तो अब महबूब है और डर अंधेरों से नहीं

कुछ तुम्हारी बेवफाई,  कुछ हमारी अगलगाई 
ढाई अक्षर इश्क़ के ,पढ़ कर भी हम कबीरों में नहीं 


इश्क़ की और ज़िन्दगी की जंग में सब खैर है ,
जो है मुनासिब ज़िन्दगी है ,जो इश्क़ है वो गैर है  




निधि 
अक्टूबर २६, २०१५ 







Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

Love: It was never about us. It was always about right and wrong.

नीरव

A girl's pen : ईश्वर से : भाग II