प्रेम का ही है निमंत्रण प्रेम ही पथ रोकता




प्रेम का ही है निमंत्रण 
प्रेम ही  पथ रोकता
कैसे और किसको बताऊँ 
मन ये क्या क्या सोचता


शत्रु तो तुम हो नहीं
क्यों लूटते मन का नगर
जो स्वप्न हो फिर ये बताओ
क्यों जगाते हर प्रहर 



ना तुम्हे मैं टोक पाऊँ
ना स्वयं को रोक पाऊँ
मुश्किलें पथ पर प्रबल हैं
पग चाहे लेकिन चलती जाऊं 



प्रेम में अब डूब कर ये
प्रेम से  मुँह मोड़ता
प्रेम का ही है निमंत्रण 
प्रेम ही  पथ रोकता
कैसे और किसको बताऊँ 
मन ये क्या क्या सोचता



निधि 
जून ८,२०१५ 

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