ईश्वर से
शब्द नहीं मिल रहे कि तुम्हें कुछ लिख सकूँ
कंठ भी अवरुद्ध है कि तुम्हें कुछ कह सकूँ
जानती हूँ व्यर्थ है पूछना तुम कौन हो
हो जहाँ भी जिस जगह,क्यों न जाने मौन हो
धर्म और कर्म की परिभाषाएं तुमने गढ़ी,
हमने बस नियति की सीढियाँ ही हैं चढ़ी
मैं तो सहज हूँ अभी भी, जैसे पिछली बार थी
बदलेगी तो नियति हीं ,जैसे बदली पिछली हार थी
जानती हूँ फिर तुम्हारी कोई नई ये परीक्षा है
इस परीक्षा के परिणाम की हीं मुझे भी प्रतीक्षा है
जानते हो तुम मुझे, ये कहाँ मैं जानती हूँ
सिर्फ ये कहना है तुम्हें कि तुमको ही बस मानती हूँ
अब यहाँ से आस्था,शक्ति और विश्वास दो
धरती कि विवशता को आशा का आकाश दो
जानती हूँ पढ़ लोगे तुम ,जो नहीं मैं लिख सकी
मान लोगे वो बात भी ,जो नहीं मैं कह सकी
निधि भारती
३ जून, २०१५
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