शब्द
ह्रदय की कैसी ये विवशता ,
न सत्य को स्वीकार करता
ना ही है प्रतिकार करता
रुक जाऊं या पथ बदल लूँ
बस यही विचार करता
आनंद की उन्मुक्तता में
और विषाद की एकरूपता में
अपनी नियति को समझने
का प्रयत्न बेकार करता
रुक जाऊं या पथ बदल लूँ
बस यही विचार करता
आसक्ति का कर्त्तव्य भी
और मुक्ति का दायित्व भी
बस देह को जीवन नदी के
इस पार से उस पार करता
रुक जाऊं या पथ बदल लूँ
बस यही विचार करता
संयोग की अतिरेकता में
और वियोग की नीरवता में
दे बलिदान निज का सदैव
प्रेम को साकार करता
रुक जाऊं या पथ बदल लूँ
बस यही विचार करता
ह्रदय की कैसी ये विवशता ,
न सत्य को स्वीकार करता
ना ही है प्रतिकार करता
निधि भारती
७ जून ,२०१५
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