कुछ फैसलों के ज़ख्म को !
कितनी ही शिददत से हो लिखा, कैसी भी स्याही से रंगा
जो पढ़नी हो किताब ज़िन्दगी की , कुछ पन्ने हटाने पड़ेंगे
क्यों रौशनी से परहेज़ रखना, क्यों अंधेरों से दिल लगाना
जो सच छुपाने हो दूसरों से, कुछ राज़ खुद के मिटाने पड़ेंगे
माज़ी पे क्या आँसू बहाना, जीते हुए क्यों हार जाना,
जो फ़िक्र मुस्तक़बिल की है ,कुछ जिक्र भूलने पड़ेंगे
क्यों फासलों को कोसना, क्यों क़दमों को है रोकना
जो इश्क़ मंज़िलों से है ,कुछ रास्ते ढूंढने पड़ेंगे
कितने भी रंगो से हो सजा, कैसे भी जज़्बातों से भरा ,
जो देखनी है हक़ीक़त ज़िन्दगी की, कुछ सपने बदलने पड़ेंगे
क्यों ख़ुदा से रंज रखना , क्यों खुदी से जंग करना ,
जो फ़क्र खुद पे हो तो अब, कुछ फर्क समझने पड़ेंगे
कुछ फैसलों के ज़ख्म को, बेहतर है अब भरने ही दो ,
जो साथ हम हैं तो ख़ुदा को, कुछ करिश्मे करने पड़ेंगे
निधि
सितम्बर २६,२०१५
You are extraordinarily brilliant....
ReplyDeleteI am Speechless...
Thank you Abhishek ! Feedback for poem is still awaited though !:)
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